
राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को लेकर फिर से सवाल उठने लगे हैं। कई वरिष्ठ पत्रकारों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में इसके विरूद्ध याचिका दायर की गई है। उनका कहना है कि इस कानून का दुरुपयोग पत्रकारों बुद्धिजीवियों को चुप कराने के लिए किया जाता है। साथ ही यह संवैधानिक मौलिक अधिकार अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के विरुद्ध है।इससे पूर्व पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी संस्था की तरफ से भी इस विषय में याचिका दायर करते हुए कहा गया कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में इस प्रकार के दमनकारी कानून की कोई जगह नहीं है।
क्या है राजद्रोह कानून
यह कानून 1860 में अंग्रेजों द्वारा स्वतंत्रता संघर्ष पर लगाम लगाने के लिए लाया गया था। यह आईपीसी की धारा 124a में दर्ज है। इसमें आजीवन कारावास तक सजा का प्रावधान है और यह एक गैर जमानती अपराध है। 124a की व्याख्या बहुत ही अस्पष्ट है “बोले लिखे शब्दों दृश्य प्रस्तुति द्वारा कोई भी भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के विरुद्ध गिरना असंतोष उत्पन्न करेगा” यह परिभाषा अपने आप में इतनी पेचीदा है कि यह सरकारों को इनके व्यापक दुरुपयोग का मौका देती है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान गांधीजी एवं बाल गंगाधर तिलक जी पर इसका प्रयोग किया गया था।
लोकतांत्रिक देश और राजद्रोह कानून
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के अनुसार जेएनयू प्रकरण के बाद से 100 भी अधिक मामलों में इस कानून का उपयोग किया जा चुका है। एक देश जो अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी देता है जो अभिव्यक्ति की आजादी को मौलिक अधिकार के रूप में व्यक्त करता है। वहां क्या ऐसे कानून की जरूरत है। एक उत्तरदाई शासन के लिए सरकार की आलोचना अति आवश्यक है। इसके अभाव में सरकार सर्व सत्तावादी हो जाती है।
राष्ट्रीय सुरक्षा और अभिव्यक्ति की आजादी
देश की अखंडता शांति सुरक्षा के लिए एक कठोर कानून का होना जरूरी है। कानून के समर्थक पक्ष कहते हैं कि भारत में अभी आतंकवाद नक्सलवाद अलगाववाद बहुत ही बड़ी समस्या है। अतः इस कानून का राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में होना बहुत ही जरूरी है। कश्मीर या उत्तर पूर्व राज्य वह अभी भी जिस प्रकार का अलगाववादी माहौल व्याप्त है तो ऐसे कठोर कानून की जरूरत अभी भी है जिससे ऐसे अलगाववादी भावनाओं पर अंकुश लगाया जा सके।
सरकार की आलोचना और राज्यद्रोह
सबसे पहले यह समझने की दरकार है कि सरकार की आलोचना राजद्रोह नहीं है। मजबूत लोकतंत्र के लिए आलोचना अति आवश्यक है। सरकारी आती है जाती हैं जो कि राज्य बना रहता है। राज्य संविधान से चलता है परंतु देश एक भावना है। आता कई बार सरकार अगर गलत करें तो उसकी आलोचना करना उसका विरोध करना सच्चा राष्ट्रवाद है। साथ ही ये आलोचना हिंसक नहीं होनी चाहिए। लोकतंत्र में हिंसक और हिंसा भड़काने वाली व्यक्ति की कोई जगह नहीं है। स्वस्थ आलोचना की हमेशा तारीफ होनी चाहिए। भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने में श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जॉर्ज फर्नांडिस, अटल बिहारी वाजपेई चौधरी चरण सिंह जैसे नेताओं का अहम योगदान है जो सरकार की गलत नीतियों के कट्टर आलोचक थे।
आगे की राह
हम हम आशीष नंदी, सीमा आजाद जैसे मामलों में कानून का दुरुपयोग देख चुके हैं जिसमें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को खुद फटकार लगानी पढ़ी। केदार सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि इस धारा को लगाने का आधार व्यापक हिंसा या हिंसात्मक घटना की आशंका को ही माना जाना चाहिए। फिर कानून में 121a, 153 a, 504, 505 जैसी धाराएं हैं जिनका प्रयोग सामान्य स्थिति में किया जा सकता है। भारत एक बनता देश है या अलगाववाद, आतंकवाद अभी भी ग्रसित है। इस कठोर कानून की अभी भी जरूरत है। इसको सही ढंग से परिभाषित करने और इसके क्रियान्वयन में अत्यंत सावधानी की जरूरत है। राजद्रोह कानून एक तोप की तरह है इसका उपयोग बड़े खतरे के लिए ही होना चाहिए ना कि सरकार खिलाफ उठने वाली हर आवाज को दबाने के लिए।