कोविड- 19, वर्गवाद एवं सामाजिक-आर्थिक प्रभाव

इस धरती का सबसे बुद्धिमान प्राणी मनुष्य अपने द्वारा बनाई गई व्यवस्थाओं को देखकर गर्व करता है और उस पर इतराता है। परंतु यही गर्व जब घमंड में परिवर्तित हो जाता है जब वह प्रकृति द्वारा बनाई गई व्यवस्था को चुनौती देने लगता है और प्रकृति के नियमों में बाधा उत्पन्न करता है। ऐसे में असंतुलित विकासजनित अव्यवस्थाओं में संघर्ष के दौरान एक ऐसी स्थिति आती है जब प्रकृति अपने शक्ति का प्रदर्शन करती है और मनुष्य को उसकी हैसियत एवं क्षुद्रता का एहसास कराती है। आज जबकि कोविड-१९ का प्रभाव पूरे विश्व पर भयावह रूप से पड़ा है, हमें एहसास हो रहा है की अपने झूठे दंभ में चूर और अपने को सर्जक समझने वाले मनुष्य का क़द प्रकृति के समक्ष कितना छोटा है। प्रकृति के विषय में विशेषज्ञों की राय है कि प्रकृति जीवों कीअपरिमित रूप से बढ़ रही जनसंख्या का नियंत्रण करती है और सभी प्राणियों की संख्या को प्राकृतिक जरूरत के अनुसार संतुलित रखती है। परंतु जब मनुष्य ने प्रकृति को  चुनौती दी और अपनी संख्या को बढ़ाना चालू किया तो जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धिजनित जो दुष्परिणाम आने शुरू हुए उससे अन्य जीव प्रजातियों की विलुप्तता, महानगरों का विकास, उद्योगों की बहुलता, प्रकृति का दोहन पर्यावरण प्रदूषण आदि साक्षात दिखायी देने वाले प्रत्यक्ष बदलाव सामने आए। 

जनसंख्या वृद्धि से कुछ अप्रत्यक्ष बदलाव भी हुए हैं जैसे जनांकिकी असंतुलन, आर्थिक असमानता, ऊँच-नीच की भावना का प्रबलीकरण, ग़रीबी-अमीरी का प्रस्थितिजनित निकृष्ट मनोभाव, शोषण की प्रवृति आदि। 

आज मनुष्यों के संसार को चलाने वाला प्रमुख कारक ‘अर्थ’ है। अर्थ तंत्र में आज पूंजीवाद का बोलबाला है। पूंजीवाद उत्पादन के साधनों और लाभ के लिए निजी स्वामित्व पर आधारित है। पूंजीवादी व्यवस्था में मानव को भी एक संसाधन के रूप में ही लिया जाता है जिसका अधिकाधिक दोहन करना उचित ठहराया जाता है। यहाँ लाभ को सर्वोपरी और सामाजिक सरोकार को नगण्य माना जाता है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को समसामयिक विश्व की लगभग सभी सरकारों ने अपनाया है चाहे वह जनता द्वारा चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकारें हों या कम्युनिस्ट, फ़ासिस्ट या अन्य। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की धुरी,शोषक-शोषित मनोभाव से एक ऐसे सर्वहारा वर्ग की उत्पत्ति होती है जो आधारभूत सुविधाओं से वंचित, निराश्रित और अनिश्चित भविष्य लिए अभिशप्त है। वह कुपोषित, दीन -हीन, निरक्षर, धर्मांध और सरकारी-ग़ैर-सरकारी व्यवस्थाओं में हर प्रकार के लाभ से वंचित और उपेक्षित है। कोविड-१९ की मार सबसे अधिक इसी वर्ग पर पड़ रही है। वह आर्थिक रूप से टूट रहा है। ऐसे में जब सबको अपनी पड़ी है तो भला उनकी सुध लेने वाला कौन है। अपने परिश्रम के बल पर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने वाला यह वर्ग फैक्ट्रियों एवं अन्य संस्थानों के बंद होने के चलते दाने-दाने को मोहताज है। आज प्रश्न यह है कि इस अंतरराष्ट्रीय विपदा में जबकि पूरे विश्व के सर्वहारा वर्ग में त्राहि मची है तो क्या इस अंतरर्राष्ट्रीय विपत्ति के गुजर जाने के बाद इस वर्ग के जीवन में कोई आर्थिक और सामाजिक बदलाव आएगा? 

इतिहास साक्षी है कि ऐसी विपदा पहली बार नहीं है अपितु  युगों से एक निश्चित अंतराल के बाद ऐसे ही एक के बाद एक भयानक संकट आते रहे हैं और करोड़ों की आबादी काल के गाल में समाती रही है। परंतु ध्यान देने की बात यह है कि इन विपदाओं से राष्ट्रों के शासन की व्यवस्था भले ही बदलती रही हो सर्वहारा वर्ग की स्थिति में शायद ही कोई परिवर्तन हुआ हो। श्रमिक वर्ग श्रमिक ही रहा, उसकी प्रस्थिति में कोई व्यावहारिक परिवर्तन नहीं हुआ। वह तब भी हाड़-तोड़ मेहनत करके अपने परिवार का भरण-पोषण करता रहा और आज भी कर रहा है। जब आज मानवीय दुनिया साधन और सुख सुविधा संपन्न हो गई है निम्न वर्ग संकट के समय पैदल चलने, फाका करने और नीड़ तक पहुंचने की अकुलाहट में अपने प्राण निरर्थक ही त्यागने को मजबूर है। उच्च वर्ग उनको सहारा देने का दिखावा भले ही कर ले लेकिन वास्तविकता यही है कि आर्थिक रूप से यह वर्ग पहले की ही भाँति दीन है। उसकी अवस्था में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ है और ना ही कोरोना महामारी के समाप्त होने के बाद होने की संभावना है। बल्कि जब लाक्डाउन समाप्त होगा और चारों तरफ भुखमरी और बेरोजगारी का बोलबाला होगा तो उद्योगों के खुलने और काम धंधा चालू होने के बाद लोगों की भीड़ भूखे भेड़ियों की तरह भारतीय आर्थिक संस्थानों की शोषणकारी फैक्टरियों पर टूट पड़ेगी और बिना किसी सेवा शर्तों के मात्र दो वक्त की रोटी मिलने की उम्मीद में रात-दिन हाड़-तोड़ मेहनत करेगी।

मुझे तो ऐसा लगता है कि महामारी के बाद दशा और दयनीय होगी।

एक सामान्य अंतरर्राष्ट्रीय मान्यता और व्यवहारिक निरीक्षण से प्रतीत होता है कि जैसे-जैसे व्यक्ति की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती जाती है वह जनसंख्या, पर्यावरण, मानवता, दयाभाव इत्यादि के प्रति सचेत होता जाता है। आर्थिक उन्नति के साथ ही व्यक्ति जनसंख्या नियंत्रण की सोचने लगता है। सामान्य रूप से देखा गया है कि संपन्न वर्ग में जनसंख्या वृद्धि नियंत्रित रहती है और विपन्न वर्ग में अनियंत्रित।इसके कई कारण हैं जैसे अशिक्षा, धर्मांधता,सामाजिक और धार्मिक मान्यता, पारिवारिक परंपरा इत्यादि। आज जबकि कोरोना प्रभाव से ऐसा लग रहा है कि गरीब वर्ग की गरीबी और बढ़ेगी तथा उसकी पूरी शक्ति जीवन की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में ही खर्च होगी तो यह कहा जा सकता है कि ऐसे में यह वर्ग जड़ता व धर्मांधता की तरफ़ उन्मुख होगा। जड़ता को बढ़ाना और तर्कक्षमता को क्षीण कर देना धर्म की विशेषता है। धर्म शोषण, भाग्यवाद, ऊँच-नीच और असमानता को बढ़ावा देता है।

 जब निम्न वर्ग धर्मभीरूता की ओर बढ़ेगा और भाग्यवाद के पहलू में जाएगा तो निश्चय ही उसमें धर्म जनित उन अनेक बुराइयों का प्रभाव भी बढ़ेगा जिनसे सामाजिक असमानता को मजबूती मिलती है। इसका एक प्रत्यक्ष प्रभाव जनसंख्या वृद्धि  के रूप में सामने आएगा। जनसंख्या बढ़ने से बेरोजगारी बढ़ेगी और आर्थिक असमानता मजबूत होगी। फलस्वरूप आर्थिक संसाधनों पर दबाव बढ़ेगा जिससे जल जंगल-जमीन की उपलब्धता और भी कम होगी। फलतः बीमारी, भुखमरी, अराजकता, अनैतिकता को बढ़ावा मिलेगा। लोगों में संतुलित जीवन के आदर्शों के प्रति अरुचि बढ़ेगी और धार्मिक आनाचार में वृद्धि होगी। इन सब कारणों से सामाजिक मानकों  में बिखराव और सामाजिक ताने-बाने को गंभीर क्षति पहुंचेगी। लोगों में आपसी विश्वास कमजोर होगा, सामाजिक दूरी पैदा होगी तथा असमानता का चक्रव्यूह और भी दृढ़ होगा। वर्गवाद का संघर्ष नये सिरे से पल्लवित पुष्पित होगा।परंतु इस संघर्ष का परिणाम होगा की संपन्न वर्ग पुनः लाभान्वित होगा तथा विपन्न वर्ग आपसी कलह के कारण फिर से शोषित होने को मजबूर होगा। 

-मनोज कुमार (फ़ेसबुक सम्पर्क)

Next post Scientists probe the ‘Nature of the Mind’

Leave a Reply

%d bloggers like this: